मैं खुश हु के,
मैं एक लड़की का बाप हु।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,
इस सरकारी मोहीम का,
मैं एक समर्थक हु।
मैं खुश हु के,
मैं एक लड़की का बाप हु।
तो क्या, अगर वो,
रोज़ शीकार हो रही है घिनौनी नज़रो का,
हमें तो है इत्मीनान,
है शक्रु खदुाका,
के जिन्दा है।
और आबरू साबूत है अभीभी,
मैं खशु हु के,
मैं एक लड़की का बाप हु।
हा हु मैं वाही भाई,
जो हर साल अपनी बेहेन को,
उपहार मैं रखवाली का वचन देता हु,
उसके रेशमी धागे के बदले मैं।
और होता हु बड़ा खुश,
उसे अपनी बेहेन बताने मैं।
पर तो क्या, अगर वो
कभी रेलवे स्टेशन,
तो कभी यूही रहा चलते,
और कभी बस इस्टाप पर,
या कभी उसी बस की भीड़ में,
चपु चाप सैहे लेती है,
कीसी बद्तमीज़ का अशीष्ट वर्तन,
पर खुशनसीबी है,
बदं रहा है वह रेशमी धागा हरसाल अभीभी
और होता हु मैं बड़ा खशु,
उसे अपनी बेहेन बताने में।
मैं हु एक प्रगतीशील पति,
अपनी औरत का परुुष, वर्धमान
एक सामान हो मिया बीवि,
मानु ये और ऐसे कही ववधान।
मैं खुशीसे होता शामिल
अपनी बीवि की हर तरक्की में,
मैं खशु हु, मैं पति हु,
एक अर्वाचीन औरत का।
तोह क्या,
अगर वो हर बार रहे तरक्की से वंचित,
और हो वज़ा, बस, औरतजात,
दुनिया पिटले समानता के लाख ढिंढोरे,
पर है वो विवश अव्यक्त नियमो से,
कभी एक तरफ है योन उतपीड़ा,
तो दूजी ऑर उड़ता खोटा लांछन,
फिर भी सम्भले संभाले संभालती है,
बेडा परिवार का आगे बढ़ाती है,
शक्रु गुजार हु इस समाज का,
जो औरत को ये अवसर दिलाती है।
मैं हु, मैं पति हु
एक अर्वाचीन औरत का।
में खुश हु, में युअ हु,
इस नव भारत का।
में खुश हु, में पुरुष हु,
इस नवभारत का।
- Tushar Tukaram Dalvi (March 2016)
